जब तक रहूँ, जागता रहूँ,
अपने को मापने का प्रयास करूँ,
"अहं ब्रह्मास्मि" न भी कहूं
तो "अहं मनुष्यास्मि" कह सकूं।
मेरे पास जो जड़ी-बूटी हैं
उन्हें बांटता जाऊँ,
भले लोगों का उदय को
नक्षत्र उदय सा मान लूँ।
जब तक रहूँ, भोजन करता रहूँ,
अन्न को देवतुल्य मानूं,
दया के बीजों को रोपता
अपने सत्य को थोड़ा बढ़ाता रहूं।
मरना ही है तो झूठी सांस क्यों भरूं,
चाल को शिकारी की तरह क्यों दबाऊं,
कृष्ण की तरह तीर की प्रतीक्षा करूं
और लिखे वचनों को सत्य होने दूँ।
***महेश रौतेला